मेरी ग़ज़लों में क्यूँ बहर ढूँडते हो
समंदर है सूखा, लहर ढूँडते हो
बुझा के चिरागों को खुद ही ओ ज़ालिम
अंधेरे में और अब सहर ढूँडते हो
खुद ही रुख़सत करके वो दिल-नशीं नज़ारे
इस ऊजाड़ में रौनक-ए-शहर ढूँडते हो
कि पहले ही कतल कर गए थे
पिलाने को फिर भी ज़हर ढूँडते हो
महोब्बत सज़ा थी जो तुम दे गए थे
फिर भी कोई वजह-ए-कहर ढूँडते हो
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